रविवार, 28 जून 2020

कोरोना काल में सुरक्षा के लिये आराम करो...

        अभी-अभी कोविद टास्क फोर्स के प्रमुख की बहुत गंभीर खबर आई है जिसके अनुसार  भारत ने कोरोना संक्रमण के 3रे चरण में प्रवेश कर लिया है । इसका मतलब यह कि अब हर जगह कोरोना संक्रमण बगैर  किसी ट्रेसिंग के आप तक भी आसानी से पहुंच सकता है । इससे बचने के लिये अगले 10-15 दिन विशेष सतर्कता से जीने के लिये घर से बाहर ना के बराबर ही निकलने का प्रयास करें ।

        बचाव की बेहतर रणनीति के लिये मेरे वॉटसएप पर प्राप्त इस मनोरंजक कविता को मैं आपके साथ शेअर कर रहा हूँ जो वैसे तो आलसी लोगों की मनोस्थिति के अनुकुल है किंतु वर्तमान समय में बचाव के लिये भी यही पर्याप्त उपर्युक्त होगी ।

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आराम करो

एक मित्र मिले, बोले, "लाला तुम किस चक्की का खाते हो ?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो ।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में,  मनहूस अक्ल से काम करो ।
संक्रान्ति-काल की बेला है,  मर मिटो, जगत में नाम करो ।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो ।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो ।

आराम ज़िन्दगी की कुंजी,  इससे न तपेदिक होती है ।
आराम सुधा की एक बूंद,  तन का दुबलापन खोती है ।
आराम शब्द में 'राम' छिपा, जो भव-बंधन को खोता है ।
आराम शब्द का ज्ञाता तो, विरला ही योगी होता है ।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ,  मेरे अनुभव से काम करो ।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर,  आराम करो,  आराम करो ।

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो ।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो ।
करने-धरने में क्या रक्खा, जो रक्खा बात बनाने में ।
जो होंठ हिलाने में रस है,  वह कभी न हाथ हिलाने में ।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में ।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा, जो रक्खा है सो जाने में ।


मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं,  उनसे कतराया करता हूँ ।
दिए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ ।
जो मिलता है,  खा लेता हूँ,  चुपके सो जाया करता हूँ ।
मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो, बेफ़िक्री से सोते हैं ।

अदवायन खिंची खाट में जो, पड़ते ही आनंद आता है ।
वह सात स्वर्ग,  अपवर्ग,  मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है ।
जब 'सुख की नींद'  कढ़ा तकिया,  इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में,  इंजन जैसा लग जाता है ।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ,  बुद्धि भी फक-फक करती है ।
भावों का रस हो जाता है,  कविता सब उमड़ी पड़ती है ।

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मैं औरों की तो नहीं,  बात पहले अपनी ही लेता हूँ ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को, ऊँटों की उपमा देता हूँ ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो, खटिया में गीत फूटते हैं ।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते, छंदों के बंध टूटते हैं ।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो ।
यह खाट बिछा लो आँगन में,  लेटो,   बैठो, आराम करो ।

संकलन - पराग जैन.



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