गुरुवार, 3 नवंबर 2011

बंटवारा (बोधकथा)

         पूर्व समय में शाम के झुरमुटे में शिकार से वापसी के दौरान किसी राज्य के राजा जब अपनी सेना से आगे-पीछे होने के कारण अकेले वापस आ रहे थे तब उन्होंने एक लकडहारे को अपनी बांसुरी की धुन में मगन गांव की ओर जाते हुए देखा । सामान्य बातचीत में राजा ने जब उससे पूछा कि उसकी आमदनी क्या  है और कैसे उसका गुजारा चलता है तो लकडहारा बोला- महाराज मैं चार मुद्राएँ रोज कमा लेता हूँ और उनमें से एक मुद्रा कुएं में फेंक देता हूँ, दूसरी मुद्रा मैं कर्ज में चुका देता हूँ, तीसरी मुद्रा को मैं उधार दे देता हूँ, और चौथी जमीन में गाड देता हुँ । 


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       राजा को उस लकडहारे के अपनी कमाई को उपयोग में लाने का यह तरीका समझ में नहीं आया लेकिन बात आगे बढने  के पूर्व ही उनका सेनापति अपने सैनिकों के साथ राजा को खोजते हुए उनके करीब आ गया और राजा अपने लश्कर के साथ अपने राज्य में वापस आ गये ।

          दूसरे दिन दरबार में राजा ने अपने सभी दरबारियों से लकडहारे के अपनी आमदनी को खर्च करने के इस तरीके का मतलब समझाने को कहा तो सभी विद्वान दरबारी इसका कोई भी संतोषप्रद उत्तर नहीं दे पाये । तब राजा ने सैनिकों को भेजकर उस लकडहारे को राज्य में बुलवाया और सभी दरबारियों के समक्ष अपनी कमाई की उन चार मुद्राओं के उपयोग के तरीके को विस्तार से समझाने को कहा तब लकडहारे ने अपनी आमदनी के उपयोग का तरीका बताते हुए कहा-

         
महाराज पहली मुद्रा मैं कुएं में फेंक देता हूँ याने अपने परिवार के भरण-पोषण के काम में लाता हूँ, दूसरी मुद्रा से मैं कर्ज चुकाता हूँ याने मेरे माता पिता जिन्होंने मेरे जन्म से लगाकर मेरे जीवन में स्थापित होने तक मेरे लिये लगातार मेहनत की उनकी वृद्धावस्था में होने वाली सभी समस्याओं को दूर करने में काम में लाता हूँ, तीसरी मुद्रा मैं उधार दे देता हूँ याने अपने बच्चों की उचित शिक्षा-दिक्षा के काम में लाता हूँ और चौथी मुद्रा जिसे मैं जमीन में गाड देता हूँ अर्थात धर्म व समाज से जुडी वो सभी जिम्मेदारियां जहाँ मेरे योगदान की आवश्यकता होती है उस जगह उसका उपयोग कर लेता हूँ ।

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होनहार...
एक सच यह भी...!
कमर-दर्द (पीठ के दर्द) से बचाव के लिये-

          राजा के साथ ही सभी दरबारी भी लकडहारे के द्वारा अपनी आमदनी के बंटवारे के इस सूझ-बूझ पूर्ण उत्तर से अत्यन्त प्रभावित हुए और राजा ने भरपूर ईनाम के साथ ससम्मान उस लकडहारे को राजदरबार से विदा किया ।      


मंगलवार, 2 अगस्त 2011

तनाव का सामना


        ससुराल से पहली बार वापस आई बेटी अपनी माँ को ससुराल के बडे परिवार की समस्याओं के बारे में लगातार परेशान होकर बता रही थी कि मैं तो सबसे तालमेल बैठाते हुए परेशान हो चुकी हूँ । मैं कितनी भी कोशिश करुँ किसी न किसी को मुझसे शिकायत दिख ही जाती है । समझ मैं नहीं आता सबके साथ कैसे निबाह कर पाऊँगी ।

          किचन में बेटी की बात सुनते-सुनते माँ ने तीन बर्तनों में पानी भरकर आँच पर चढाया फिर एक बर्तन में गाजर डाली, दूसरे में एक अंडा डाला और तीसरे बर्तन में काफी के बीज डाल दिये । पन्द्रह-बीस मिनिट के बाद उसने तीनों बर्तनों को आँच से उतारकर एक-एक बर्तन को बेटी से जांचने को कहा । बेटी ने पहले गाजर को परखा, वह पानी में उबलकर बहुत नर्म हो गई थी । दूसरे बर्तन से अंडे के बाहरी आवरण को हटाकर देखा तो उसका अन्दर का तरल पदार्थ कठोर हो गया था । एकमात्र काफी थी जिस पर उस आंच का कोई असर नहीं हुआ बल्कि उसने पानी का रंग भी बदल दिया था और उस पानी में काफी की खुशबू भी आने लगी थी ।
  
          माँ ने बेटी को बताया- ये सभी चीजें समान स्थिति में गर्म पानी से होकर गुजरी हैं, लेकिन असर सब पर अलग-अलग हुआ है । तुम इनमें से किसके जैसी हो, गाजर जो वैसे तो कठोर दिखती है लेकिन बुरा समय आते ही नर्म पड जाती है, या अंडा जो गर्म पानी के कारण खुदको परिवर्तित कर लेता है, या फिर काफी की तरह हो जो गर्म पानी का भी रंग बदल सकती है । जैसे-जैसे पानी गर्म होता गया उसकी खुशबू भी चारों ओर फैलती चली गई ।
 
          बेटी को अपनी समस्याओं का समाधान मिल गया और वह नई उर्जा के साथ अपने ससुराल जाने की तैयारी करने लगी ।

सोमवार, 25 जुलाई 2011

सुखी कौन ? दुःखी कौन ??

सुखी कौन ? 

          एक शिष्य ने अपने गुरु से पूछा - गुरुदेव इस दुःखी संसार में सुखी कौन है ?

          गुरु ने जवाब दिया - वत्स ! जिसे किसी का एक पैसा भी कर्ज न चुकाना हो और शौच से निपटने में एक मिनिट से ज्यादा वक्त न लगता हो वही सुखी है ।

          शिष्य ने पूछा- ऐसा क्यों गुरुदेव तो गुरु बोले- ऐसा इसलिये कि कर्जदार न होगा तो मस्त और बेफिक्र रहेगा । कर्ज की चिन्ता से स्वास्थ्य खराब होता है और अपमानित भी होना पडता है । कहावत है कि औरत का खसम आदमी और आदमी का खसम कर्ज । इसी तरह जिसे शौच करते समय न तो इन्तजार करना पडे न जोर लगाना पडे और तत्काल खुलकर पेट साफ हो जाए उसकी पाचन शक्ति का क्या कहना ! इसलिये जिसकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो और तन भी स्वस्थ हो तो मन तो प्रसन्न होगा ही । तो ऐसा ही व्यक्ति सुखी होगा । 
दुःखी कौन ? 
लोकेषु निर्धनो दुःखीऋणग्रस्तस्ततोsधिकम् ।
ताभ्याम् रोगमुक्ततो दुःखी, तेभ्यो दुःखी कुर्भायकः ।।

-विदुर नीति.
       संसार के दुःखियों में पहला दुःखी निर्धन है, उससे अधिक दुःखी वह है जिसे किसी का ऋण चुकाना हो, इन दोनों से भी अधिक दुःखी सदा रोगी रहने वाला मनुष्य है लेकिन इन सबसे ज्यादा दुःखी वह है जिसकी पत्नि या पति दुष्ट प्रवृत्ति का हो ।


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          उपरोक्त श्लोक में दुःखी व्यक्ति की अलग-अलग किस्मे बताई गई है जो सही भी है किन्तु देखने में आया है कि जब तक हमें अपने लिये सुख की और दूसरे को दुःख देने की चाह और कोशिश रहेगी तब तक हम दुःखी ही रहेंगे । जैसा हम चाहें वैसा न हो और जैसा न चाहें वैसा हो यही दुःखों का मूल कारण है ।
निरोगधाम से साभार...

बुधवार, 8 जून 2011

अपनी- अपनी बारी...


          एक परिचित परिवार, पति-पत्नि और दो पुत्र । खाते-पीते संघर्षशील परिवार के मंध्यमवर्गीय पिता ने तीव्रबुद्धि पुत्रों की शिक्षा में लगन को देखते हुए बडे पुत्र को लगभग 10 लाख रु. खर्च करके डाक्टर बनवाया । छोटे-पुत्र को भी डाक्टर बनवाते शैक्षणिक खर्च सिर्फ छोटे पुत्र का ही 20 लाख तक पहुँच गया । इस दरम्यान पत्नि भी साथ छोड गई और दोनों बच्चों ने विवाह के बाद अपने-अपने अलग-अलग आशियाने बना लिये ।

         
अब वृद्धावस्था की मार के साथ जितनी बीमारियां उतने ही कर्जों के भार से उस व्यक्ति की हालत दयनीय है । नाते-रिश्तेदार जब उन बच्चों से अपने पिता को सम्हालने के लिये कहते हैं तो दोनों ही पुत्रों का अलग-अलग किन्तु एक ही जवाब होता है - मुझे उनसे कोई बात नहीं करना, कोई रिश्ता नहीं रखना ।

         
सम्भव है कि जमाने के साथ संघर्षशील मनोस्थिति में कभी चिडचिडाहट के दौरान एकाधिक बार उस व्यक्ति के द्वारा अपने बच्चों को डांट देने की स्थिति में ऐसा कुछ भी कभी कहने में आ गया हो जो इन बच्चों को सुनना बिल्कुल भी अच्छा न लगा हो किन्तु यदि ऐसा हुआ भी हो तो क्या इन स्थितियों में उन आर्थिक व सामाजिक रुप से सक्षम पुत्रों द्वारा अपने लगभग असहाय पिता के प्रति ये नजरिया उचित है ?  


         
ऐसी ही स्थिति को ध्यान में रखकर राष्ट्रसंत मुनि श्री तरुणसागरजी ने कभी कहा होगा - 

अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाकर उन्हें पर्याप्त योग्य अवश्य बनवाओ
किन्तु उन्हें इतना योग्य भी मत बनवा देना कि बडे होकर वो 
तुम्हें ही अयोग्य समझने लगें ।

रविवार, 22 मई 2011

रामभरोसे जो रहे...!


     एक समय हमारे एक मित्र जो मल्टीलेबल मार्केटिंग कंपनी में हमारे साथ काम करते थे उनके घर हमारा आना-जाना होता था । उनकी जीवनचर्या देखकर हम दूसरे मित्र आश्चर्यचकित रहा करते थे कि ये भाई कैसे काम करते हैं और आगे कैसे काम कर पावेंगे । दरअसल उनकी दिनचर्या में हम ये देखते कि सुबह 11.00 / 11.30 तक उनका नहाना धोना चलता । फिर उनके कमरे में जो बीसियों देवी-देवताओं की तस्वीरें लगी होती थीं उनकी पूजा-पाठ का दौर अगले एकाध घंटे चलता । फिर वे भोजन से निवृत्त होते और लगभग 1.00 बजे बाद उनके काम का समय चालू होता जो शाम के ठीक 5.00 बजे ठंडाई छानने के समय तक चलता । फिर एकाध घंटे हाथ से ठंडाई छानने का दौर और फिर साधु-संतों की सेवा चाकरी । शायद ही कभी उनका ये क्रम बिगडते हम मित्रों ने देखा होगा । हमारे लिये आश्चर्य करने वाली बात ये होती थी कि हम कई बार अपने काम को विस्तार देने के लिये सुबह 8.30 / 9.00 बजे से जुट जाते थे और रात्रि 9.30 / 10.00 बजे तक भी अपने काम से पीछे नहीं हटते थे । और हमारे इन मित्र की दिनचर्या... वाकई हमें आश्चर्यचकित करती थी । अब इनके बारे में बाद में...

        पिछले दिनों पुरातन काल की एक कहानी पढी- जिसमें आस्थावान संत अपने शिष्यों को ये शिक्षा दे रहे थे कि जब आप ईश्वर में अपना ध्यान लगाते हो तो ईश्वर भी हर परिस्थिति में आपका ध्यान रखते ही हैं । उनके एक जिज्ञासु लेकिन धार्मिक शिष्य ने जब पूछा कि यदि मैं अपने भोजन के लिये कोई उपक्रम न करुँ तो क्या ईश्वर मेरे लिये भोजन का इन्तजाम कर देंगे । अवश्य करेंगे, संत ने अपने शिष्य को आश्वस्त करते हुए कहा । शिष्य भी पूरी तरह से इस तथ्य का परीक्षण करने की मानसिकता में दूसरे ही दिन पास के जंगल में जाकर एक पेड की ऊंची शाख पर बैठकर ईश्वर की भक्ति में लग गया । जब भोजन का वक्त हुआ तो भूख के दौरान उसे फिर मन में संशय उत्पन्न हुआ लेकिन परीक्षा तो परीक्षा ठहरी । वो ठान कर बैठा रहा कि आज या तो ईश्वर मेरे लिये भोजन जुटाएंगे या फिर मैं भूखा ही रहूँगा ।

        कुछ समय और इसी उहापोह में गुजरा । अचानक राजा के मंत्री और सेनापति का अपने दो-चार सैनिकों के साथ उधर से निकलना हुआ । सेनापति ने मंत्री से भोजन वहीं कर लेने का आग्रह किया जिसे मंत्री ने स्वीकार कर लिया । घनी छांह देखकर उसी पेड के नीचे वे सभी भोजन करने बैठे । उन्होंने अपने भोजन के टिफीन खोले ही थे कि बिल्कुल नजदीक किसी शेर के दहाडने की आवाज सुनाई दी । जिसे सुनकर वे सभी राजकर्मी खाना छोडकर भाग खडे हुए । उनके जाने के बहुत देर बाद तक जब उनमें से कोई भी पलटकर वापस नहीं आया तो उस जिज्ञासु शिष्य ने सोचा कि ईश्वर ने यहाँ तक तो भोजन मेरे लिये भेज ही दिया है । क्या अब मुझे नीचे उतरकर ये भोजन कर लेना चाहिये ? लेकिन फिर उसके मन ने कहा कि नहीं यदि ईश्वर ने मेरे लिये ये भोजन जुटाया है तो उन्हें ही इसे मुझ तक भी पहुँचाना चाहिये । मैं नीचे क्यों उतरुँ ?

        तभी दूसरा संयोग बना और कहीं से भूखे-प्यासे डाकू भागते हुए उधर से निकले । वहाँ उन्हें कीमती पात्रों में भोजन रखा देखकर स्वयं की भूख मिटा लेने की इच्छा जागृत हुई, तभी  उनके एक साथी ने अपने सरदार को सचेत करते हुए कहा - सरदार ये कहीं हमारी गिरफ्तारी की कोई साजिश तो नहीं ? वर्ना इस घने जंगल में इस भोजन के यहाँ मिलने का क्या काम ? कहीं ये भोजन जहरीला न हो जिससे हम इसे खावें और या तो मर जावें या फिर बेहोशी के आगोश में गिरफ्तार कर लिये जावें । सरदार को भी अपने साथी की बात तर्कसंगत लगी, वो बोला यदि यह किसी की साजिश है तो निश्चय ही कोई भेदिया भी आसपास अवश्य छुपा होगा, पहले उसे ढूंढो । आनन-फानन में वृक्ष की ऊपरी चोटी पर बैठे जिज्ञासु शिष्य पर उनकी नजर पड गई । उन्होंने समवेत स्वर में सरदार को बताया कि वो उपर बैठा हैं । अब तो उन शिष्य को बडी घबराहट हुई उन्होंने चिल्लाकर कहा - भोजन में कोई जहर नहीं है । बिल्कुल साफ-सुथरा भोजन है । तब तक तो दो डाकू एक टिफीन उठाकर ऊपर चढ गये और उस जिज्ञासु शिष्य को कहा पहले तुम हमारे सामने ये भोजन करो । जिज्ञासु शिष्य भूखा तो बैठा ही था उन डाकुओं के आतिथ्य में उसने भरपेट भोजन किया और डाकुओं के भोजन करके निकल जाने के बाद अपने गुरु के पास जाकर अपना अनुभव बताया कि किस प्रकार आज ईश्वर ने मेरे लिये भोजन की व्यवस्था की ।

        अब बात पुनः उन धार्मिक आस्थावान मित्र के सन्दर्भ में - हम सभी मित्र जो 12-13 घंटे रोज तन्मयता से अपना कार्य करते वे सभी औसत जीवन स्तर से उपर शायद नहीं पहुँचे लेकिन मात्र 4 घंटे रोजाना काम करने वाला हमारा वो मित्र कालान्तर में प्रापर्टी ब्रोकर बनकर किसानों की जमीनों के सौदे करके और उन्हें कालोनाईजरों को बेच देने के काम में लगकर करोडपति बन गया । साधु संतों की सेवा करते एक बडा सा मंदिर भी उसने अपनी आस्था के चलते बनवा दिया और आज तक भी उसकी दिनचर्या में शायद ही कोई बदलाव आ पाया हो । उसके साथ के हम सभी मित्र बेशक अपने-अपने क्षेत्रों में स्थापित भी हुए और अपने प्रयासों के दायरे में आर्थिक रुप से उन्नत भी हुए किन्तु उस चार-पांच घंटे रोज काम करने वाले मित्र की हैसियत की बराबरी हमारे उस समय के पूरे सर्कल में कोई भी आज तक तो नहीं कर पाया ।

        अब इसे ईश्वर की कौनसी व्यवस्था का नाम दिया जावे - 

शायद रामभरोसे जो रहे पर्वत पर हरीयाए...  इसी को कहते हों ।

बुधवार, 11 मई 2011

विषतुल्य...


        संसार का कोई भी पदार्थ अपने आप में अच्छा या बुरा नहीं होता, उसका अच्छा या बुरा होना, हितकारी या अहितकारी होना या लाभकारी या हानिकारक होना उसके उपयोग, उपयोग के उद्देश्य और उसके परिणाम पर निर्भर होता है । उचित युक्ति और मात्रा के साथ प्रयोग करने पर जहर भी औषधि का काम करता है, जबकि अनुचित मात्रा में किया गया स्वादिष्ट भोजन भी विष (फूड पाईजन) का काम करता है । हमारे जीवन में कुछ ऐसी विषम परिस्थितियां निर्मित होती हैं जो विष के समान हानिकारक सिद्ध होती हैं । ऐसी कुछ स्थितियां ये भी हैं-

 घी और शहद समान मात्रा में मिलने पर विषतुल्य हो जाते हैं । 

 खाया हुआ आहार ठीक से न पचने पर विषतुल्य हो जाता है ।

 वृद्ध पुरुष के लिये युवा पत्नी विषतुल्य हो जाती है । 

 कटु वचन बोलने से वाणी विषतुल्य हो जाती है । 

 विद्यार्थी के लिये आलस्य विषतुल्य हो जाता है । 

 तरुणी विधवा के लिये कामवासना विषतुल्य हो जाती है । 

 पत्नी के लिये नपुंसक पति विषतुल्य हो जाता है । 

 कुलटा और कर्कश पत्नी पति के लिये विषतुल्य हो जाती है । 

 भोगविलास में अति स्त्री-पुरुष के लिये विषतुल्य हो जाती है । 

 अवज्ञाकारी व मूर्ख पुत्रपिता के लिये विषतुल्य हो जाता है । 

 कर्ज लेते रहने वाला व्यसनी पिता सन्तान के लिये विषतुल्य हो जाता है ।

 मूढ और आलसी शिष्य गुरु के लिये विषतुल्य हो जाता है । 

 निर्धन के लिये महत्वाकांक्षाएं विषतुल्य हो जाती हैं । 
  
और...

 अति करना सभी जगह विषतुल्य ही साबित होता है ।

मंगलवार, 3 मई 2011

अनमोल बोल - 4. सुनने की आदत.

        
          सुनने की आदत डालो, क्योंकि दुनिया में कहने वालों की कमी नहीं है । कडुवे घूंट पी-पीकर जीने और मुस्कराने की आदत बना लो क्योंकि दुनिया में अब अमृत की मात्रा बहुत कम रह गई है । अपनी बुराई सुनने की खुदमें हिम्मत पैदा करो क्योंकि लोग तुम्हारी बुराई करने से बाज नहीं आएंगे । आलोचक बुरा नहीं है बल्कि वही तो जिंदगी के लिये साबुन-पानी का काम कर रहा है । आखिर जिन्दगी की फिल्म में खलनायक भी तो जरुरी है ।
मुनि श्री तरुण सागर जी.



बुधवार, 27 अप्रैल 2011

गर भला किसी का कर ना सको तो....


गर भला किसी का कर ना सको 
तो बुरा किसी का मत करना,
अमृत न पिलाने को हो घर में 
तो जहर पिलाते भी डरना ।
यदि सत्य मधुर न बोल सको 
तो झूठ कटुक भी मत कहना
गर मौन रखो सबसे अच्छा
विष-वमन कहीं भी मत करना,
यदि घर ना किसी का बना सको 
तो झोपडिया न जला देना
यदि मरहम पट्टी कर न सको 
तो खार नमक न लगा देना 

जब दीपक बनकर जल न सको 
तो अन्धकार भी मत करना
मानव बनकर सहला न सको 
तो दिल भी किसी का दुखाना ना
यदि देव नहीं बन सकते तो 
दानव बनकर भी दिखाना ना ।

यदि सदाचार अपना न सको 
तो दुराचार भी मत करना.
गर भला किसी का कर ना सको 
तो बुरा किसी का मत करना ।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

होनहार...

       अति व्यस्त व्यापारी पिता ने अपने युवा हो रहे पुत्र को हमउम्र दोस्तों में कुछ ज्यादा ही रुचि लेते देखा तो यह जानने की कोशिश में कि अपने दोस्तों के साथ इस उम्र में यह लडकियों में रुचि ले रहा है या ड्रिंक जैसे व्यसन में उलझ रहा है या फिर व्यापार में पैसे कमाने की ओर भी इनका रुझान चल रहा है, उसके घर आने के समय एकान्त कमरे में मेज पर सुन्दर लडकी की फोटोफ्रेम के साथ व्हिस्की की बाटल और नोटों की एक गड्डी रख दी और छुपकर उसकी गतिविधि को देखने लगा ।





      पुत्र ने कमरे में घुसते ही Wou की मुद्रा में सिटी बजाते हुए लडकी के फोटो को उठाकर उसका चुम्बन लिया फिर बाटल खोलकर एक बडा सा घूंट व्हिस्की का मुंह में भरा और नोटों की गड्डी को जेब के हवाले करते हुए कमरे से बाहर निकल गया ।


बुधवार, 13 अप्रैल 2011

जीवन चक्र !...



स्त्री काकरोच से डरती है
 
काकरोच चूहे से डरता है
 
चूहा बिल्ली से डरता है

बिल्ली कुत्ते से डरती है
 
कुत्ता आदमी से डरता है

आदमी स्त्री (पत्नी) से डरता है.


इसी वर्तुल में घूम रही इस गोल दुनिया में सभी अपनी जीवन यात्रा के दायरे में अनवरत घूम रहे हैं ।

चिन्तन सौजन्य-
राष्ट्रसंत मुनि श्री तरुणसागरजी महाराज

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

तर्क और तकरार...


     संत कबीर के बारे में यह धारणा आम थी की उनका दाम्पत्य जीवन बहुत सुखी है और उन पति-पत्नी के बीच कभी झगडा नहीं होता है । 
  
         एक जिज्ञासु इसका राज जानने कबीर के पास पहुँचे और उनसे अपनी जिज्ञासा जाहिर की- मैंने सुन रखा है कि आपका अपनी पत्नी के साथ कभी कोई अनबन या झगडा नहीं होता है । आखिर ऐसा कैसे सम्भव है ?


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   कबीर ने उन सज्जन को बैठाकर अपनी पत्नी को आवाज दी और उससे कंडील जलाकर लाने को कहा- पत्नी ने कंडील जलाकर वहाँ लाकर रख दिया । तब कबीर ने पत्नी से उन मेहमान को पिलाने के लिये पानी मंगवाया. पत्नी ने पीने का पानी लाकर भी दे दिया जिसे कबीर ने उन आगन्तुक महोदय को पिलाने के बाद उनसे पूछा- मैंने आपको हमारे बीच तकरार नहीं होने का कारण बता दिया है । उम्मीद है आपको भी इससे लाभ हो सकेगा ।
  
        जिज्ञासु आगंतुक विस्मित मुद्रा में कबीर से बोला- कहाँ ? अभी तक तो आपने मेरे प्रश्न का कोई उत्तर ही नहीं दिया । मैं कैसे समझ सकता हूँ कि आप क्या समझाना चाहते हैं ।
  
        तब कबीर ने उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हुए उन्हें बताया- इस समय शाम शुरु हो रही है और रात का अंधेरा होने में अभी कई घंटे बाकि है । ऐसी स्थिति में जब मैंने अपनी पत्नी से कंडील जलाकर लाने को कहा तो उसने मुझसे कोई पूछताछ या तर्क नहीं किया कि इस समय मैं जलते हुए कंडील का क्या करुंगा ? बस मैंने मांगा और उसने लाकर दे दिया ।


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         वैसे ही यदि वह मुझसे किसी काम के लिये बोलती है तो मैं भी बिना किसी तर्क के उसका बताया हुआ काम कर देता हूँ और जब हमारे बीच में अकारण के तर्क या ऐसा क्यूं जैसी कोई पूछताछ नहीं चलती तो फिर किसी प्रकार की तकरार का  भी कोई कारण हमारे बीच नहीं रहता और इसीलिये लोगों को हमारा दाम्पत्य जीवन सुखी दिखता है   
  

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

मितव्ययता - फिजूलखर्ची और राजा का न्याय !

      एक परिवार में दो भाई साथ में रहते थे । पिता की मृत्यु के बाद दोनों भाईयों में सम्पत्ति का बंटवारा हो गया और दोनों अपना-अपना काम व अपनी-अपनी गृहस्थी में रहने लगे । बडे भाई की पत्नी जितनी तेज-तर्रार थी उतनी ही कामचोर होने के साथ फिजूलखर्च भी थीजबकि छोटे भाई की पत्नी मेहनती स्वभाव के साथ मितव्ययता से जीवन जीने की प्रवृत्ति में यकीन रखती थी ।

          दोनों देवरानी व जेठानी की इन अलग-अलग प्रवृत्तियों के कारण थोडे ही समय में दोनों भाईयों की आर्थिक स्थितियों में असमानता बढने लगी । छोटे भाई के परिवार की बढती समृद्धि देखकर बडे भाई की पत्नी रोज अपने पति से शिकायत करती कि बंटवारे में हमारे साथ धोखा हुआ है और तुम्हारे छोटे भाई ने अधिक धन-सम्पत्ति अपने कब्जे में ऱखली है । इसलिये तुम्हें राजा के पास जाकर उनसे शिकायत करने के साथ ही अपने लिये न्याय मांगना चाहिये ।

           रोज-रोज की एक ही बात, कब तक असर न करती । आखिर बडा भाई अपनी पत्नी को साथ लेकर शिकायत करने राजा के पास पहुँचा । राजा ने उनकी शिकायत सुनकर छोटे भाई को भी अपनी पत्नी सहित राज-दरबार में बुलवाया । जब राजा के सामने दोनों महिलाओं की स्वभावगत कमी के कारण बने इस आर्थिक असंतुलन की बात आई तो बडे भाई की पत्नी ने इस कारण को गलत बताते हुए छोटे भाई व उसकी पत्नी को बेईमान साबित करते हुए उनके द्वारा बेईमानी से धन हडपे जाने की शिकायत फिर की ।
      फैसला आसान न था अतः राजा ने मंत्री से सलाह-मशवरा कर दोनों महिलाओं को दूसरे दिन सुबह तालाब से एक-एक घडा  बाल्टी पानी इस आदेश के साथ लाने को कहा कि पानी ढूलना नहीं चाहिये । दूसरे दिन दोनों देवरानी व जेठानी नियत समय पर पानी का घडा व बाल्टी तालाब से भरकर राजमहल तक पहुँची । दोनों ही महिलाओं से कीचड सने रास्तों पर नंगे पैर चलवाते हुए अलग-अलग यह पानी मंगवाया गया था । जेठानी अपना पानी पहले लेकर पहुँच गई जिसमें जल्दबाजी के कारण राजा के आदेश के बाद भी छलकने से पानी कम हो चुका था । फिर सेवक ने जेठानी के पैर धोकर साफ करने के लिये एक लोटा पानी उसे दिया जिसे उसने पैरों पर डालकर पैर साफ करने चाहे जो नहीं हुए । इतने कीचड के पैर इतने से पानी में कैसे साफ होंगे कहते हुए उसने सेवक से कहा- ला भैया थोडा पानी और दे । सेवक ने उसे और पानी दे दिया, उसे भी अपने पैरों पर डालकर भी वह अपने पैर पूरी तरह से साफ नहीं कर पाई ।

          तब तक देवरानी भी अपना घडा बाल्टी भरकर ला चुकी थी । उसके बर्तनों का पानी बगैर छलके पूरा भरा दिखाई दे रहा था । सेवक ने पैर साफ करने के लिये उसे भी एक लोटा पानी दिया जिसे उसने वहीं रखकर पहले जमीन से एक पत्ता उठाकर उस पत्ते से अपने पैर का अधिकांश कीचड साफ किया । फिर पानी की पतली सी धार एक पैर पर डालते हुए दूसरे पैर से रगडकर पहला पैर व फिर उसी प्रकार दूसरे पैर पर पतली सी धार डालते हुए दूसरे पैर से पहला पैर रगडकर साफ कर लिया व फिर दोनों पैरों को एक साथ साफ करने के बाद भी कुछ बचे हुए पानी के साथ लोटा वापस सेवक को लौटा दिया ।
       
       राजा व वजीर महल की खिडकी से दोनों महिलाओं के तरीके को बहुत ध्यान से देख रहे थे । राज दरबार में दोनों महिलाओं को उनके पतियों के साथ बुलवाकर राजा ने सभी दरबारियों के समक्ष बडे भाई को अपना फैसला सुना दिया कि तुम्हारी पत्नी लापरवाह और फिजूलखर्च है और बंटवारे के बाद अब यदि तुम्हें अपने हिस्से में कमी लग रही है तो उसकी जिम्मेदार तुम्हारी पत्नी के खर्च करने का तरीका है न कि बंटवारे में किसी प्रकार की बेईमानी ।
    
       और आसमान पर थूकने की सी कोशिश करती बडे भाई की शिकायती पत्नी अपने पति के साथ अपमानित होकर अपना सा मुंह ले घर वापस आ गई ।
   

गुरुवार, 31 मार्च 2011

ये पत्नियां !


         कल एक ब्लाग पर पत्नी की महिमा कुछ विशेष कम्प्यूटरीय विषेषणों से युक्त देखने के बाद पाठक वर्ग की जानकारी में कुछ और वृद्धि करने के उद्देश्य से-

 पत्नी
जो रहे पति से तनी-तनी,
खाली करवादे सारी मनी, 
कहलाती है वो पत्नी.


      एक पति ने पत्नी से पूछा : वाईफ का मतलब जानती हो- 'विदाउट इन्फर्मेशन फाईटिंग एवरीवेअर'.

      पत्नी - ये काम तो मैं जब चाहे कर सकती हूँ तभी तो  वाईफ को 'विद इटियट फार एवर' कहते हैं.

       एक पत्नी जो अपने पति की किसी बात पर उससे झगड रही थी, पति को न जाने क्या-क्या सुनाती जा रही थी और पति चुपचाप अपने अखबार में नजर गडाये सब सुन रहा था । पत्नी के सब्र की जब इन्तहा हो गई तो वो पति से गुस्से में बोल गई- कुछ जवाब क्यों नहीं देते ? जानवर कहीं के.
पति महोदय यहाँ भी चुप्पी ही साधे रहे.

        पति की चुप्पी के इस दौर में पत्नी आखिर अपने कमरे में चली गई । एकांत में पश्चाताप  भी हुआ कि मैंने क्रोध में अपने पति को जानवर कैसे बोल दिया । कुछ पश्चाताप की सी मुद्रा में वह अपने पति के पास आकर बोली मुझे माफ कर दो गुस्से में मैं आपको जानवर बोल गई । पति तब मुस्कराते हुए बोला- तो क्या हुआ वो तो मैं हूँ.
         पत्नी आश्चर्य से बोली ये कैसी बात कर रहे हैं आप ?
         तब पति अपनी पत्नी से बोला- देखो तुम मुझे जान कहती हो ना ? पत्नी ने स्वीकारा- हाँ.
        पति ने फिर कहा- और मैं तुम्हारा वर हूँ या नहीं
? पत्नी बोली- हाँ.
        तो फिर मैं जानवर हुआ या नहीं ? पति ने पत्नी की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा ।

         
         जानकारों की राय में- सयानी स्त्री पुरुष से जो कुछ भी कहती है उसमें थोडी शकर मिलाकर कहती है और पुरुष जो कुछ कहता है उसे थोडे नमक के साथ ग्रहण करती है ।


सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

लघु कथा- प्रार्थना विधि.


      एक समय किसी जहाज के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने के बाद तीन व्यक्ति अपना सब कुछ खोकर बहते-बहते एक निर्जन टापू पर जा पहुँचें । वह टापू प्राकृतिक सम्पदाओं से ओतप्रोत होने के कारण विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट फलों से भरपूर वृक्षों से परिपूर्ण भी था । अतः वे तीनों व्यक्ति वहीं बस गये । संयोगवश वहाँ तीन पत्थर भी जमीन में गहराई तक गडे थे अतः उन तीनों व्यक्तियों की नित्य-पूजा भी उन पत्थरों के समीप होने लगी । 

          प्रतिदिन वे तीनों व्यक्ति अपनी आवश्यक दैनिक क्रियाओं से फारिग होने के बाद बडी लगन से उन पत्थरों के समीप बैठकर एक ही प्रार्थना करते थे- You are three,  We are three. (यू आर थ्री, वी आर थ्री) । दिन गुजर रहे थे । संयोगवश उधर से गुजरते हुए एक जहाज के यात्री उस टापू के मनोरम वातावरण को देखकर कुछ समय के लिये वहाँ रुक गये । वहाँ उन यात्रियों ने जब इन तीन टापू वासियों को वहाँ आराम से रहते देखा तो उन्होंने भी जल्दी रवाना होने की चिन्ता छोडकर कुछ अधिक दिनों तक वहाँ रुकने का मन बनाया और उन तीनों व्यक्तियों के साथ वहाँ छुट्टियां व्यतीत करने जैसे माहौल में उनके साथ रुक गये ।

          जब उन्होंने उन तीनों व्यक्तियों को वहाँ प्रार्थना में ये कहते हुए सुना कि You are three,  We are three. (यू आर थ्री, वी आर थ्री) तो जहाज के उन यात्रियों को बडा अटपटा लगा । उन्होंने उन तीनों को समझाया कि भाई देव-उपासना ऐसे नहीं करते हैं और फिर उन्हें प्रार्थना कि वे समस्त विधियां जो वे जानते थे उन तीनों को समझाई । दो-चार दिन जब तक उस जहाज के यात्री वहाँ रुके रहे तब तक वे तीनों प्राणी उन यात्रियों के साथ ही उनकी शैली में ही अपनी उपासना करते रहे ।

          जब उस जहाज के यात्रियों की रवानगी का समय आया तो वे उन तीनों साथियों से बिदा लेकर अपने रास्ते पर आगे की ओर बढ गये । इधर उनके जाने के बाद जब इन तीनों निवासियों की उपासना का वक्त आया तो उनके समझाये हुए सारे श्लोक व विधियां वे भूल गये, अब ? उन्होंने सोचा कि एक बार फिर से उन यात्रियों से ही प्रार्थना की विधि और समझ ली जावे । ये सोचकर वे तीनों उनके जहाज के पीछे दौड पडे ।

          इधर जहाज के वे यात्री जिन्हें वह टापू छोडे कई घंटे गुजर चुके थे ये देखकर हक्का-बक्का रह गये कि टापू पर निवास कर रहे वे तीनों निवासी पानी के उपर ऐसे दौडते चले आ रहे हैं जैसे सडक पर दौड रहे हों । उन्होंने अपना जहाज रुकवाया । नजदीक आकर जब उन तीनों टापू वासियों ने उन जहाजी यात्रियों से कहा कि भाई आपकी बताई गई पूजा की विधियां और श्लोक व भजन हम भूल रहे हैं । आप कृपा करके एक बार हमें वे सब और समझा दें । अब तो उस जहाज के सभी यात्रियों नें उन तीनों टापू निवासियों के पैर पकड लिये और बोले भाई गल्ति हमसे ही हो गई । हमारी पूजा तो ऐसी ही है लेकिन वास्तविक पूजा तो जो तुम लोग आज तक करते आ रहे हो You are three,  We are three. (यू आर थ्री, वी आर थ्री) वही सही है और आप लोग अपनी वही पूजा करते रहो ।

          *     ईश्वर की वास्तविक प्रार्थना (पूजा) किसी विधि-विधान की मोहताज नहीं होती है ।

ऐतिहासिक शख्सियत...

पागी            फोटो में दिखाई देने वाला जो वृद्ध गड़रिया है    वास्तव में ये एक विलक्षण प्रतिभा का जानकार रहा है जिसे उपनाम मिला था...