एक समय हमारे एक मित्र जो मल्टीलेबल मार्केटिंग
कंपनी में हमारे साथ काम करते थे उनके घर हमारा आना-जाना होता था । उनकी जीवनचर्या
देखकर हम दूसरे मित्र आश्चर्यचकित रहा करते थे कि ये भाई कैसे काम करते हैं और आगे
कैसे काम कर पावेंगे । दरअसल उनकी दिनचर्या में हम ये देखते कि सुबह 11.00 / 11.30 तक उनका नहाना धोना चलता । फिर उनके कमरे में जो
बीसियों देवी-देवताओं की तस्वीरें लगी होती थीं उनकी पूजा-पाठ का दौर अगले एकाध
घंटे चलता । फिर वे भोजन से निवृत्त होते और लगभग 1.00 बजे बाद उनके काम का समय चालू होता जो शाम के ठीक 5.00 बजे ठंडाई छानने के समय तक चलता । फिर एकाध घंटे हाथ
से ठंडाई छानने का दौर और फिर साधु-संतों की सेवा चाकरी । शायद ही कभी उनका ये
क्रम बिगडते हम मित्रों ने देखा होगा । हमारे लिये आश्चर्य करने वाली बात ये होती
थी कि हम कई बार अपने काम को विस्तार देने के लिये सुबह 8.30 / 9.00 बजे से जुट जाते थे और रात्रि 9.30 / 10.00 बजे तक भी अपने काम से पीछे नहीं हटते थे । और हमारे
इन मित्र की दिनचर्या... वाकई हमें आश्चर्यचकित करती थी । अब इनके बारे में बाद
में...
पिछले दिनों पुरातन काल की एक कहानी पढी-
जिसमें आस्थावान संत अपने शिष्यों को ये शिक्षा दे रहे थे कि जब आप ईश्वर में अपना
ध्यान लगाते हो तो ईश्वर भी हर परिस्थिति में आपका ध्यान रखते ही हैं । उनके एक
जिज्ञासु लेकिन धार्मिक शिष्य ने जब पूछा कि यदि मैं अपने भोजन के लिये कोई उपक्रम
न करुँ तो क्या ईश्वर मेरे लिये भोजन का इन्तजाम कर देंगे । अवश्य करेंगे, संत ने अपने शिष्य को आश्वस्त करते हुए कहा ।
शिष्य भी पूरी तरह से इस तथ्य का परीक्षण करने की मानसिकता में दूसरे ही दिन पास
के जंगल में जाकर एक पेड की ऊंची शाख पर बैठकर ईश्वर की भक्ति में लग गया । जब
भोजन का वक्त हुआ तो भूख के दौरान उसे फिर मन में संशय उत्पन्न हुआ लेकिन परीक्षा
तो परीक्षा ठहरी । वो ठान कर बैठा रहा कि आज या तो ईश्वर मेरे लिये भोजन जुटाएंगे
या फिर मैं भूखा ही रहूँगा ।
कुछ समय और इसी उहापोह में गुजरा । अचानक
राजा के मंत्री और सेनापति का अपने दो-चार सैनिकों के साथ उधर से निकलना हुआ ।
सेनापति ने मंत्री से भोजन वहीं कर लेने का आग्रह किया जिसे मंत्री ने स्वीकार कर
लिया । घनी छांह देखकर उसी पेड के नीचे वे सभी भोजन करने बैठे । उन्होंने अपने
भोजन के टिफीन खोले ही थे कि बिल्कुल नजदीक किसी शेर के दहाडने की आवाज सुनाई दी ।
जिसे सुनकर वे सभी राजकर्मी खाना छोडकर भाग खडे हुए । उनके जाने के बहुत देर बाद
तक जब उनमें से कोई भी पलटकर वापस नहीं आया तो उस जिज्ञासु शिष्य ने सोचा कि ईश्वर
ने यहाँ तक तो भोजन मेरे लिये भेज ही दिया है । क्या अब मुझे नीचे उतरकर ये भोजन
कर लेना चाहिये ?
लेकिन फिर उसके मन ने कहा कि नहीं यदि
ईश्वर ने मेरे लिये ये भोजन जुटाया है तो उन्हें ही इसे मुझ तक भी पहुँचाना चाहिये
। मैं नीचे क्यों उतरुँ ?
तभी दूसरा संयोग बना और कहीं से
भूखे-प्यासे डाकू भागते हुए उधर से निकले । वहाँ उन्हें कीमती पात्रों में भोजन
रखा देखकर स्वयं की भूख मिटा लेने की इच्छा जागृत हुई, तभी उनके एक साथी ने अपने सरदार को सचेत करते हुए कहा
- सरदार ये कहीं हमारी गिरफ्तारी की कोई साजिश तो नहीं ? वर्ना इस घने जंगल में इस भोजन के यहाँ मिलने का
क्या काम ?
कहीं ये भोजन जहरीला न हो जिससे हम इसे
खावें और या तो मर जावें या फिर बेहोशी के आगोश में गिरफ्तार कर लिये जावें ।
सरदार को भी अपने साथी की बात तर्कसंगत लगी, वो बोला यदि यह किसी की साजिश है तो निश्चय ही कोई भेदिया भी आसपास अवश्य
छुपा होगा,
पहले उसे ढूंढो । आनन-फानन में वृक्ष की
ऊपरी चोटी पर बैठे जिज्ञासु शिष्य पर उनकी नजर पड गई । उन्होंने समवेत स्वर में
सरदार को बताया कि वो उपर बैठा हैं । अब तो उन शिष्य को बडी घबराहट हुई उन्होंने
चिल्लाकर कहा - भोजन में कोई जहर नहीं है । बिल्कुल साफ-सुथरा भोजन है । तब तक तो
दो डाकू एक टिफीन उठाकर ऊपर चढ गये और उस जिज्ञासु शिष्य को कहा पहले तुम हमारे
सामने ये भोजन करो । जिज्ञासु शिष्य भूखा तो बैठा ही था उन डाकुओं के आतिथ्य में
उसने भरपेट भोजन किया और डाकुओं के भोजन करके निकल जाने के बाद अपने गुरु के पास
जाकर अपना अनुभव बताया कि किस प्रकार आज ईश्वर ने मेरे लिये भोजन की व्यवस्था की ।
अब बात पुनः उन धार्मिक आस्थावान मित्र के
सन्दर्भ में - हम सभी मित्र जो 12-13 घंटे
रोज तन्मयता से अपना कार्य करते वे सभी औसत जीवन स्तर से उपर शायद नहीं पहुँचे
लेकिन मात्र 4
घंटे रोजाना काम करने वाला हमारा वो मित्र
कालान्तर में प्रापर्टी ब्रोकर बनकर किसानों की जमीनों के सौदे करके और उन्हें
कालोनाईजरों को बेच देने के काम में लगकर करोडपति बन गया । साधु संतों की सेवा
करते एक बडा सा मंदिर भी उसने अपनी आस्था के चलते बनवा दिया और आज तक भी उसकी
दिनचर्या में शायद ही कोई बदलाव आ पाया हो । उसके साथ के हम सभी मित्र बेशक
अपने-अपने क्षेत्रों में स्थापित भी हुए और अपने प्रयासों के दायरे में आर्थिक रुप
से उन्नत भी हुए किन्तु उस चार-पांच घंटे रोज काम करने वाले मित्र की हैसियत की
बराबरी हमारे उस समय के पूरे सर्कल में कोई भी आज तक तो नहीं कर पाया ।
अब इसे ईश्वर की कौनसी व्यवस्था का नाम दिया
जावे -
शायद रामभरोसे जो रहे पर्वत पर हरीयाए... इसी
को कहते हों ।
10 टिप्पणियां:
यही है प्रभु की माया, इसकी को आदमी नहीं समझ पाया ज्ञानवर्धक पोस्ट , आभार ....
प्रोपर्टी डीलिंग में करोड़ों का काला धन कमाकर काम करने की ज़रुरत कहाँ रहती है । ऐसे बगुले भगत तो समाज में अनेकों मिल जायेंगे । काम तो शरीफ़ लोग ही करते हैं ।
वैसे इश्वर भी उसी की मदद करता है, जो अपनी मदद खुद करता है ।
डा. टी. एस. दराल सर,
आपकी बात से मैं भी शत-प्रतिशत सहमत हूँ किन्तु इनकी जिस लाईफ स्टाईल का जिक्र मैंने पूर्व में किया वह इनके प्रापर्टी ब्रोकर बनने के बहुत पहले से चली आ रही थी और फिर धन कमाने के बाद इन महाशय ने खुद का रहने के लिये मकान बाद में बनाया लेकिन ये मन्दिर जिसका मैंने जिक्र किया इसे पहले बनवाया ।
दिलचस्प लेख...
ऐसे बहुत से उदाहरण प्रत्यक्ष मिल जाते हैं,सही कहा है ... जैसी हो भवतव्यता वैसी मिले सहाय
प्रभु तुम्हरी बनाई दुनिया में भांति भांति के लोग । ये बात फ़िर सिद्ध हो गई , लोककथा दिलचस्प लगी और बहुत कुछ सिखाने समझाने वाली भी , लेकिन फ़िर भी श्रम का अपना ही एक अलग आनंद है ..जिंदगी को जीने का यही सबसे बेहतर तरीका है । अच्छी पोस्ट है सर
क्या करें, कभी कभी समय काटे नहीं कटता है।
कितनी गहरी बात है लिए है आपकी पोस्ट..... दुनिया में हर तरह के लोग हैं..... और कुछ बातें सच में समझ से परे ही हैं.........
जो संतोषी और आस्थावान होता है, अक्सर उसे बहुत कुछ मिल जाता है। कथा अच्छी थी। ऐसे चमत्कार होते हैं तभी ना लोग भगवान को मानते है? नहीं तो लोग स्वयं ही भगवान बनने को उत्सुक रहते हैं। लेकिन मैं कर्म को ही बड़ा मानती हूँ।
रोचक लगा आलेख ....ऐसे तो कई उक्तियां मिल जाती हैं ,परन्तु मै व्यक्तिगत तौर पर ईश्वर में पूर्ण आस्था रखते हुए भी कर्मवाद में यकीन करती हूं ......सादर !
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