दादी माँ बनाती थी रोटी, पहली गाय की और आखरी कुत्ते की, हर सुबह नन्दी आ जाता था, दरवाज़े पर - गुड़ की डली के लिए ।
कबूतर का चुग्गा, चीटियों का आटा, शनिवार, अमावस, पूर्णिमा का सीधा । सरसों का तेल गली में, काली कुतिया के ब्याने पर, गुड़ चने का प्रसाद, सभी कुछ निकल जाता था । वो भी उस घर से, जिसमें भोग विलास के नाम पर एक टेबल फैन भी न होता था ।
आज सामान से भरे घरों में - कुछ भी नहीं निकलता ! सिवाय लड़ने की कर्कश आवाजों के, या फिर टी वी की आवाजें...
तब मकान चाहे कच्चे थे, लेकिन रिश्ते सारे सच्चे थे ।
चारपाई पर बैठते थे, दिल में प्रेम से रहते थे । सोफे और डबल बैड क्या आ गए ? दूरियां हमारी बढा गए ।
छतों पर. सब सोते थे, बात बतंगड खूब होते थे, आंगन में वृक्ष थे, सांझे सबके सुख दुख थे ।
दरवाजा खुला रहता था, राही भी आ बैठता था, कौवे छत पर कांवते थे, मेहमान भी आते जाते थे ।
एक साइकिल ही पास था, फिर भी मेल जोल का वास था, रिश्ते सभी निभाते थे, रूठते भी थे और मनाते भी थे ।
पैसा चाहे कम था, फिर भी माथे पे कोई गम ना था, कान चाहे कच्चे थे, पर रिश्ते सारे सच्चे थे !
अब शायद सब कुछ पा लिया है, पर लगता है कि बहुत कुछ गंवा दिया है...