पागी
फोटो में दिखाई देने वाला जो वृद्ध गड़रिया
है वास्तव में
ये एक विलक्षण प्रतिभा का जानकार रहा है जिसे उपनाम मिला था पागी । वैसे इनका
वास्तविक नाम रणछोड़दास रबारी रहा है और उपनाम पागी याने वो
मार्गदर्शक व्यक्ति जो रेगिस्तान में रास्ता दिखाए । इन्हीं रणछोड़दास रबारी को फील्डमार्शल सैम मानिक
शॉ पागी के नाम से बुलाते थे । गुजरात के बनासकांठा ज़िले के पाकिस्तान सीमा से
सटे गाँव पेथापुर गथड़ों के रहवासी रणछोड़दास रवारी वहाँ भेड़, बकरी व ऊँट पालन का
काम करते थे ।
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इनमें
पैरों के निशानों को इतनी सटीकता से पहचानने का हुनर था जिसके मुताबिक वे ऊँट के
पैरों के निशान देखकर बता देते थे कि उस पर कितने आदमी सवार रहे हैं । इन्सानी
पैरों के निशान देखकर वज़न से लेकर उम्र तक का अन्दाज़ा लगा लेते थे । कितनी देर
पहले का निशान है तथा कितनी दूर तक गया होगा सब एकदम सटीक आकलन ऐसे कर लेते थे
जैसे कोई कम्प्यूटर गणना कर रहा हो । उनकी इस विशेषता और क्षेत्रीय स्तर पर इनकी
आवश्यकता के मुताबिक इनके 58 वर्ष की उम्र में बनासकांठा के पुलिस अधीक्षक वनराजसिंह झाला ने
उन्हें पुलिस के मार्गदर्शक के रूप में रख लिया था ।
किंतु
इनके इस हुनर की वास्तविक उपयोगिता 1965 और 1971 के भारत पाक युद्ध में दिखी ।
जिसके बारे में सैम मानिक शॉ ने स्वयं बताया कि 1971 में जब भारत युद्ध जीत चुका था, और जनरल मानेक शॉ ढाका में थे तब उन्होंने आदेश दिया कि पागी को
बुलवाओ, डिनर आज
उसके साथ करूँगा ! तब इन्हें लाने हेलिकॉप्टर भेजा गया । हेलिकॉप्टर पर सवार होते
समय पागी की एक थैली नीचे रह गई, जिसके लिए हेलिकॉप्टर वापस उतारा गया ।
अधिकारियों ने नियमानुसार हेलिकॉप्टर में रखने से पहले थैली खोलकर देखी तो दंग रह
गए, क्योंकि उसमें दो रोटी, प्याज तथा बेसन का एक पकवान (गाठिया) भर था । डिनर में भी उसमें से एक रोटी सैम साहब ने खाई एवं दूसरी पागी ने ।
1965 में
युद्ध के आरम्भ में पाकिस्तान सेना ने भारत के गुजरात में कच्छ सीमा स्थित विधकोट
पर कब्ज़ा कर लिया, इस मुठभेड़ में लगभग 100 भारतीय सैनिक शहीद हो गये थे तथा भारतीय सेना की एक 10000 सैनिकों वाली टुकड़ी को तीन दिन में छारकोट पहुँचना आवश्यक था ।
तब रणछोडदास पागी की पहली बार आवश्यकता
पड़ी थी ! रेगिस्तानी रास्तों पर अपनी पकड़ की बदौलत
उन्होंने सेना को निर्धारित समय से 12 घण्टे
पहले मंजिल तक पहुँचा दिया था । सेना के मार्गदर्शन के लिए उन्हें सैम साहब ने खुद
चुना था तथा सेना में एक विशेष पद सृजित किया गया था 'पागी' अर्थात पग याने पैरों का जानकार ।
भारतीय सीमा में छिपे 1200 पाकिस्तानी सैनिकों की location तथा
अनुमानित संख्या केवल उनके पदचिह्नों से पता कर भारतीय सेना को बता दी थी, बस इतना काफ़ी था भारतीय सेना के लिए वो मोर्चा जीतने के लिए ।
1971 युद्ध
में सेना के मार्गदर्शन के साथ-साथ अग्रिम मोर्चे तक गोला-बारूद पहुँचवाना भी पागी
के काम का हिस्सा था । पाकिस्तान के पालीनगर शहर पर जो भारतीय तिरंगा फहरा था उस
जीत में पागी की भूमिका अहम थी । सैम साहब ने उस वक्त 300/- रु. का नक़द पुरस्कार उन्हें अपनी जेब से दिया था
।
सेना
में इनकी उपयोगीता के आधार पर उत्तर गुजरात के सुईगाँव अन्तर्राष्ट्रीय सीमा
क्षेत्र की एक बॉर्डर पोस्ट को रणछोड़दास पोस्ट नाम दिया गया । यह पहली बार हुआ कि किसी आम आदमी के नाम पर सेना
की कोई पोस्ट हो, साथ
ही वहाँ उनकी मूर्ति भी लगाई गई हो । इसके अलावा पागी को 65 व 71 के युद्ध में उनके योगदान के लिए - संग्राम पदक, पुलिस पदक व समर सेवा पदक नामक तीन विशिष्ट सम्मान भी मिले ।
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27 जून 2008 को सैम मानिक शॉ की मृत्यु हुई तथा 2009 में पागी ने भी सेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति' ले ली । तब पागी की उम्र 108 वर्ष
थी ! जी हाँ, आपने सही पढ़ा. 108 वर्ष की उम्र में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ! सन् 2013 में 112 वर्ष
की आयु में पागी का निधन हो गया ।
आज
भी वे गुजराती लोकगीतों का हिस्सा हैं । उनकी शौर्यगाथाएँ युगों तक गाई जाएँगी ।
अपनी देशभक्ति, वीरता, बहादुरी, त्याग, समर्पण तथा शालीनता के कारण भारतीय सैन्य
इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गए रणछोड़दास रबारी यानि हमारे 'पागी' ।
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What’sApp द्वारा साभार