जैसे ही युवा
पुत्र-पुत्रियों के वैवाहिक व कामकाजी जीवन की शुरुआत होती है, देखते ही देखते उनके माता-पिता का जीवन
बुढापे के आगोश में समाने लगता है । सुबह की सैर पर जाते वक्त चक्कर आ जाते हैं तो
अचेतावस्था की स्थिति में आने के बावजूद जबकि ये बात उनके सैर पर जाने वाले
साथियों के द्वारा पूरे मोहल्ले को मालूम हो जाती है, वे अपनी संतान से उस स्थिति को छुपाते
दिखते हैं ।
यदि बच्चे अपने कैरियर की आवश्यकता के अनुसार बाहर रहते हैं तो हर महत्वपूर्ण त्यौंहार पर बच्चों के आने की राह तकते दिखाई देते हैं । उनके आने की स्वीकृति मिलते ही घर को यथासम्भव चमकाकर उनकी पसन्द की चीजों का पहले से इन्तजाम करके रखते हैं । नाती-पोतों की प्रतिक्षा में अक्सर आंसू भी बहाते दिखाई देते हैं, उनकी छोटी से छोटी फरमाईशों पर दौड कर बाजार पहुंच जाते हैं ।
अपने
स्वास्थ्य व खर्च को संतुलित रखने की कोशिश में कभी अपनी खुराक घटाते दिखते हैं तो
कभी अपने ढीले हो चुके वस्त्रों को पुनः रिपेयर करवाते दिखते हैं लेकिन तब भी अपने
बच्चों को कोई परेशानी न हो या उन पर हमसे सम्बन्धित कोई आर्थिक भार न पडे वे
अक्सर इन विषयों पर बात करने से बचने की कोशिश ही करते दिखाई देते हैं ।
फोन
पर जब भी बात करते हैं तो अक्सर अपने बारे में हम बिल्कुल ठीक हैं कि शैली में ही
जवाब देते दिखते हैं, जबकि अपने परिचितों
के दायरे में कभी कोई मृत्यु की खबर मिल जाए तो चिंतित
अवस्था में अपने परहेज और भी सख्ती से पालते दिखाई देते हैं । बच्चों के बढते वजन
पर जब-तब उन्हें चेतावनी देने की कोशिश करते हुए रोजाना वाकिंग, एक्सरसाईज व योग जैसी गतिविधियों को 'पहला सुख निरोगी काया' के सिद्धांतानुसार निरन्तर अपनाने की
सलाह देते दिखते हैं ।
वर्ष-दर-वर्ष
बैंक में अपने जीवित होने का प्रमाण दर्ज करवाते हैं, कभी पेंशन या अन्य किसी माध्यम से थोडी
भी आय में वृद्धि दिखाई दे तो खुशी से फूले नहीं समाते । अपनी छोटी-मोटी बचत की FD को बिना नागा रिन्यू करवाते हैं । कम से
कम खर्च करके ज्यादा से ज्यादा बचत हमारे बाद भी बच्चों के काम आ सके इसी सिद्धांत
पर जीवन बिताने का प्रयास करते दिखाई देते हैं ।
सामान्य
जरुरत की चीजें अक्सर रख कर भूल जाते हैं फिर उन्हें ढूंढने में न सिर्फ सारा घर
सर पर उठा लेते हैं, बल्कि आपस में भी
एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हुए बात-बात पर झुंझलाते दिखते हैं, किन्तु बगैर जीवनसाथी के रह भी नहीं
पाते हैं ।
अपने
गिने-चुने मिलने-जुलने वाले लोगों में अक्सर एक ही किस्से को बार-बार दोहराते
दिखते हैं । चश्मे से भी ठीक से न देख पाने के बावजूद डॉक्टर के पास जाने में या
एलोपैथी की दवाएँ साईड इफेक्ट के नाम पर लेने की बजाय सस्ती आयुर्वेदिक व
होम्योपैथी की दवाईयों से काम चलाने की कोशिश करते हैं ।
गरिष्ठ
भोजन नहीं पचा पाने के कारण लौकी, गिलकी, तुराई व मूंग की दाल जैसे सात्विक आहार
पर जीवित रहने की कोशिश करते हैं, किसी भी बडी से बडी
समस्या में भी स्पेशलिस्ट डॉक्टर के पास जाने या ऑपरेशन जैसी मंहगी स्थितियों को
यह कहकर टालते दिखते हैं कि काम तो चल ही रहा है ।
यदि बच्चे अपने कैरियर की आवश्यकता के अनुसार बाहर रहते हैं तो हर महत्वपूर्ण त्यौंहार पर बच्चों के आने की राह तकते दिखाई देते हैं । उनके आने की स्वीकृति मिलते ही घर को यथासम्भव चमकाकर उनकी पसन्द की चीजों का पहले से इन्तजाम करके रखते हैं । नाती-पोतों की प्रतिक्षा में अक्सर आंसू भी बहाते दिखाई देते हैं, उनकी छोटी से छोटी फरमाईशों पर दौड कर बाजार पहुंच जाते हैं ।
हमेशा
खुद के लिये बिल्कुल कामचलाऊ और बच्चों व उनके बच्चों के लिये सर्वश्रेष्ठ का
प्रयास ही करते दिखाई देते हैं और इसी प्रकार देखते ही देखते मां-बाप बूढे होते
चले जाते हैं ।
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