ऐ सुख तू
कहाँ मिलता है, क्या तेरा कोई स्थायी पता है,
क्यों बना बैठा है अन्जाना, आखिर
कहाँ है तेरा ठिकाना ?
कहाँ-कहाँ ढूंढा तुझको, पर तू न
मिला कहीं मुझको,
ढूंढता रहा ऊंचे मकानों में, बडे-बडे
शोरुम व दुकानों में,
स्वादिष्ट मीठे पकवानों में, चोटी के
बडे धनवानों में,
वो भी तुझको ढूंढ रहे थे, बल्कि
मुझसे ही पूछ रहे थे ।
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क्या आपको कुछ पता है, आखिर ये
सुख रहता कहाँ है,
मेरे पास तो दुःख का पता है, जो
सुबह-शाम मिलता रहता था ।
परेशान होकर रपट लिखवाई, पर ये
कोशिश भी काम न आई,
उम्र अब ढलान पर है, हौसले भी
थकान पर हैं ।
हाँ उसकी तस्वीर है मेरे पास, बची हुई
है अब भी आस,
मैं भी हार नहीं मानूंगा, सुख के
रहस्य को अवश्य जानूंगा ।
बचपन में मिला करता था, संग मेरे
रहा करता था,
पर जबसे बडा मैं हो गया, सुख
मुझसे जुदा हो गया ।
मैं फिर भी नहीं हुआ हताश, जारी रखी
उसकी तलाश,
एक दिन जब आवाज ये आई, क्या
मुझको ढूंढ रहा है भाई ।
मैं तेरे अन्दर छुपा हुआ हूँ, तेरे ही
घर में बसा हुआ हूँ,
मेरा नहीं है कुछ भी मोल, सिक्कों
में न मुझको तोल ।
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मैं बच्चों की मुस्कानों में हूँ, संगीत की
मधुर तानों में हूँ,
पत्नी के साथ चाय पीने में, परिवार
के संग जीने में ।
माँ-बाप के आशीर्वाद में, रसोई घर
के महाप्रसाद में,
बच्चों की सफलता में हूँ, माँ की
निश्छल ममता में हूँ ।
हर पल तेरे संग रहता हूँ और अक्सर ही तुझसे कहता हूँ,
मैं तो हूँ बस एक एहसास, बंद करदे
तू मेरी तलाश,
मिले उसी में कर संतोष, आज को जी, कल की कल
सोच,
कल के
लिये आज को न खो, मेरे लिये कभी दुःखी न हो
2 टिप्पणियां:
मन के अन्दर ही होता है सुख ... संतोष के आसपास रहता ...
भावपूर्ण रचना ...
सुख तो अपने मन के अंदर ही बसा है,बस ढूंढने मात्र की देरी है
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